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Essay on Terrorism in Hindi | नक्सलवाद पर निबंध
प्रस्तावना
वास्तव में नक्सलवाद और माओवाद एक ही विचारधारा है यह लोकतंत्र को एक दिखावा मानते हैं ।इनका मानना है कि जैसे माओत्से तुंग गने बंदूक की नोक पर चीन की सत्ता को कब्जा किया वैसे ही भारत में होना जरूरी है आज नक्सलवाद एक विचारधारा ना होकर हिंसा बन गई है।
शुरू में इस आंदोलन का केंद्र पश्चिम बंगाल था 1967 में विभाजन के समय मार्क्सवादी विचारधारा के लोग जिनका नेतृत्व कनु सान्याल इत्यादि ने किया था । उन्होंने किसानों के अधिकारों तथा स्थानीय अधिकारियों से शोषण के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ी धीरे-धीरे इसका विस्तार होने लगा आज यह आंदोलन विकराल रूप ले चुका है और देश के लिए एक गंभीर चुनौती बन गया है इसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ आतंक फैलाना है ।
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छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद
करीब 3 दशक पूर्व या कहे तो सन 1971 के आसपास से नक्सली समस्या ने छत्तीसगढ़ में अपने पैर पसारने शुरू कर दिए हैं ।बस्तर से आए नक्सलियों ने यहां अपनी तीसरी पीढ़ी तैयार कर ली है ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरू होने के बाद नक्सलियों के डिवीजन स्तर तक की कमान स्थानीय आदिवासियों को सौंप दी जाती है।
जिनका प्रमुख बस्तर के जंगलों में आतंक का पर्याय बन चुका है दक्षिण बस्तर में क्रांतिकारी मजदूर संघ क्रांतिकारी आदिवासी महिला संघ चेतना नाटक आदि विभिन्न नक्सली संगठनों में हजारों आदिवासी सदस्य हैं, जो जनता में हिले मिले हुए हैं और उन्हें पहचानना सुरक्षाबलों के लिए बहुत ही मुश्किल है।
नक्सलवाद के कारण और शासन
नक्सलियों ने अपनी इस लंबी यात्रा में जितनी तेजी से पैर पसारे उनमें आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, उड़ीसा छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्य शामिल है। शासन के द्वारा समस्याओं के निवारण हेतु किए गए प्रयास असफल साबित हो रहे हैं।
शुरुआत में नक्सलवाद जो अधिकारों व अन्याय के लिए शुरू हुआ एक आंदोलन था। आगे चलकर अपने उद्देश्यों से भटक गया आदिवासियों के मन में प्रशासनिक अधिकारियों और ठेकेदारों के प्रति गहरा असंतोष उनकी स्वार्थ लोलुपता और आदिवासियों के अधिकारों का हनन स्त्रियों का दैहिक शोषण इत्यादि । ऐसे अनेक कारणों ने इन भोले-भाले आदिवासियों को इन नक्सलियों से जुड़ने पर मजबूर किया।
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इनकी इस मासूमियत का सीधा लाभ उन्होंने उठाया और फिर स्वयं उनका शोषण करने लगे बलपूर्वक उन्हें अपने साथ मिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ा इससे निपटने के लिए प्रशासन स्तर पर भी अनेक प्रश्न किए गए जिसमें सबसे प्रमुख सलवा जुडूम कि शांति प्रक्रिया थी। लेकिन कुछ कारणों से इस में भी सरकार पूरी तरह सफल नहीं हो पाया और इसका खामियाजा आज सभी को भुगतना पड़ रहा है।
सलवा जुडूम अभियान के संस्थापक या जनक कहे जाने वाले महेंद्र कर्मा व उनके अन्य साथी नेताओं को 25 मई 2013 को शाम करीब 5:30 कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा की बैठक कर सुकमा से लौटते हुए करीब 200 कांग्रेसी नेताओं कार्यकर्ताओं व उनके 25 वाहनों के एक काफिले पर 250 माओवादियों ने जिसमें अधिकांश संख्या महिला नक्सलियों की बताई जाती है । लगभग 90 मिनट से अधिक फायरिंग की और मौत का तांडव खेला।
जिसमें कर्मा की बहुत ही दर्दनाक हत्या के साथ मानवता भी शर्मसार हुई क्योंकि उनके शव पर नक्सलियों की बर्बरता का जघन्य रूप दृष्टिगत हुआ कांग्रेश अध्यक्ष नंद कुमार पटेल उनके पुत्र दिनेश पटेल वीसी शुक्ला गोपी माधवानी फूलों देवी नेताम एवं अनेक कार्यकर्ता व सुरक्षा बल के लोग इस बर्बरता के शिकार हुए हालांकि कुछ लोग बच भी गए।
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इस हमले की जिम्मेदारी माओवादी की प्रवक्ता की ओर से गुडसा द्वारा हस्ताक्षरित 14 पेज के मीडिया बयान जारी कर ली गई । यह पहली बार नहीं है कि जब माओवादियों के 2004 में भारत के खिलाफ युद्ध का ऐलान करने के बाद इतना बड़ा हमला हुआ है। 2009 में उन्होंने छत्तीसगढ़ में चिंतलनार मैं सीआरपीएफ के 76 जवानों को मार डाला था । अक्टूबर 2003 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के काफिले पर घात लगाकर उन्हें बुरी तरह जख्मी किया था।
लेकिन बस्तर की इस घटना में पहली बार इतने सारे नेताओं को निशाना बनाया गया जिन्हें माओवादी प्रवक्ता ने 26 मई को प्रेस विज्ञप्ति में जनता का दुश्मन बताया था। छत्तीसगढ़ झारखंड और उड़ीसा के कुछ इलाकों में जमीनी हकीकत से साफ है । कि इन राज्यों में सशस्त्र माओवादी का डर और उनके समर्थक जंगलों के अंदरूनी हिस्से या आसपास के कम विकसित इलाकों में अपना अभियान चलाते हैं।
जहां सड़कों शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं जैसे बुनियादी ढांचे कि कोई सुविधा उपलब्ध नहीं होती माओवादी के खिलाफ ढीला ढाला रवैया अपनाती केंद्र सरकार के लिए यह समय अब कुछ कर गुजरने का है। छत्तीसगढ़ के पूर्व डीजीपी विश्वरंजन सुझाव देते हैं । कि प्रभावी नतीजों के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को लंबे समय के आधार पर आक्रमक रणनीति तैयार करनी होगी।
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